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सर्व-विद्याकर्षिणीं च, सर्व-प्रज्ञापहारिणीम् । भजेऽहं चास्त्र-बगलां,सर्वाकर्षण-कर्मसु ।।
वीजं रक्षा-मयं प्रोक्तं, मुनिभिर्ब्रह्म-वादिभि:।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीम्, वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
पीताम्बर-धरां सौम्यां, पीत-भूषण-भूषिताम् । स्वर्ण-सिंहासनस्थां च, मूले कल्प-तरोरधः ॥
१२. ॐ ह्लीं श्रीं ऐं श्रीकाल-कर्षिण्यै नमः-अधरोष्ठे (नीचे के ओंठ में) ।
श्रीबगला शिव-प्राण-प्रद कवच’एक-वीरा तन्त्र’ में सङ्कलित भगवती बगला का उक्त ‘कवच’ तीन बातों मेंअपनी विशेषता रखता है।प्रथम तो यह कि यदि कोई शत्रुओं से घिर जाए, अथवा धन या पराक्रम से गर्वित व्यक्तियोंद्वारा सताया जाए, अथवा हाथी, सॉंप आादि जन्तुओं का भय हो, तो उनके ‘स्तम्भन’ में यह कवचउपयोगी होता है।दूसरे यह कि इसके ‘पूर्व-पीठिका’-भाग से यह स्पष्ट है कि कृत-युग में एक भयङ्कर वात-क्षोभ उपस्थित हुआ, जिससे सातों समुद्र एक हो गए और देवता भी भयभीत हो उठे। इन्द्र, विष्णुआदि सभी शङ्कर जी के शरणागत हुए। उस समय स्वयं शिव जी ने सभी भयों को दूर करनेवालायह ‘कवच’ देवों को प्रदान किया।तीसरे भस्मासुर के त्रास से इसी कवच द्वारा श्री शिव जी ने अपनी रक्षा की थी। यही कारणहै कि इस ‘कवच’ को ‘शिव-प्राण-प्रद’ कहा गया है।-सम्पादक।। पूर्व-पीठिका-श्रीमहोग्र-तारा उवाच ।राज्ञां मण्डल-गामीनां, प्रबलारिषु सर्पताम् । स-गर्वाणां महा-देव!, धन- विक्रम-चेतसाम् ।।गज-सर्पादि-जन्तूनां, स्तम्भनं वद शङ्कर!॥ श्रीभैरव उवाच ।।पुरा कृत-युगे देवि!, वात-क्षोभमुपस्थिते । सप्तार्णवानामेकत्वं, गतं क्षोभं ययुः सुराः ।।सेन्द्रा स-विष्णवः सर्वे, सामयं१ सायुषः स्थिताः ।।।। देवा उचुः ।।शिव शङ्कर, रुद्रेश!
मुद्-गरं दक्षिणे पाशं, वामे जिह्वां च वज्रकम् ।पीताम्बर-धरां सान्द्र-वृत्त-पीन-पयोधराम्
ऋषि श्रीसविता द्वारा उपासिता श्रीबगला-मुखी
श्रीब्रह्मास्त्र कल्पोक्त सूर्य- मण्डल-स्थित श्रीबगला- मुखी का ध्यान
‘वलगान् कृत्या -विशेषान् भूमौ निखनितान् शत्रुभिर्विनाशार्थं हन्तीति वलगहा तां वलग-हनम् ।
‘विनाशय’-पदं पातु, पादांगुल्योर्नखानि मे । ‘ह्रीं’ बीजं सर्वदा check here पातु, बुद्धीन्द्रिय-वचांसि मे ।।११सर्वाङ्गं ‘प्रणवः’ पातु, ‘स्वाहा’ रोमाणि मेऽवतु । ब्राह्मी पूर्व-दले पातु, चाग्नेय्यां विष्णु-वल्लभा ।। १२
‘अस्य सहसः ईशाना’ सारे जगत् पर जिसका शासन है, उन ‘विष्णु-पत्नी’ अर्थात् विष्णु की रक्षा करनेवाली, वृहस्पति, मात-रिश्वा और वायु-रूपवाली, ‘संध्वाना’ शब्द-तत्त्व का कारण, ‘वाता’ वात-क्षोभ को शान्त करनेवाली, ‘अभितो गृणन्तु’ हमें उभय-लोक में भुक्ति एवं मुक्ति अर्थात् ‘स्वर्गापवर्ग-प्रदे’ प्रदान वरनेवाली श्रीबगला विद्या को बताता है।
श्रीबगला को त्रि-शक्ति-रूप में माना गया है-
खड्ग-कर्त्री-समायुक्तां, सव्येतर-भुज-द्वयाम् । कपालोत्पल-संयुक्तां, सव्य-पाणि-युगान्विताम् । ।